अज्ञानता के कारण लोगों ने इसको परंपरा बना लिया है।।। वही दूसरी ओर कौंध जाता है मेरा मन ये सोच कर भी कि, किसी धनाढ्य परिवार के घर के वैवाहिक समारोह में सिर्फ विलासिता को पूरा करने के प्रक्रम में लाखों रुपए पानी की तरह बहा दिए जाते हैं, वही दूसरी ओर किसी गरीब परिवार के घर में मोमबत्ती जलाने के लिए भी पैसे नहीं होते हैं।
विलासिता का चरम तो तब दिखाई पड़ता है जब, उन लोगों को भोज में आमंत्रित किया जाता है जिन लोगों के पास न धन की कमी है न बल की। क्या इन लोगों के स्थान पर उन गरीबों को भोजन नहीं कराया जा सकता जो सिर्फ़ इस वजह से गरीब हैं क्योंकि उनका हक़ उन्ही धनाढ्य लोगों में से अधिकतम लोगों ने, जिनको भोज के लिए बुलाया गया है, ने छीन लिया है?
दहेज़ की अनैतिक परंपरा तो हृदय में अपार पीड़ा भर देती है। क्यों दहेज़ की मांग करने वाला इंसान ये नहीं समझता कि जिस दहेज़ की मांग करके वो प्रसन्न हो रहा है, उसी दहेज़ को जुटा न पाने की वजह से न जानें कितने गरीबों ने सिर्फ ये सोच कर आत्महत्या कर लिया कि, उनकी बेटी या बहन का विवाह एक समृद्ध परिवार में सिर्फ उनके दहेज़ न जुटा पाने के कारण नहीं हुआ।
लेकिन बदलाव तो लाना पड़ेगा।। इस पितृसत्तात्मक समाज से छुटकारा तो पाना पड़ेगा। एक स्त्री को जो कि स्त्री नहीं है बल्कि सिर्फ एक मादा जाति है उसे मुखर होना पड़ेगा क्योंकि ” हारा वही जो लड़ा नहीं”।। किसी भी कुरीति को ख़त्म करने के लिए भीड़ की जरूरत कभी नहीं हुई चाहे वो बाल विवाह जैसी कुरीति हो, विधवा विवाह, सती प्रथा या जाति प्रथा जैसी कुरीति ही क्यों न हो।।। सुधार तो लाना पड़ेगा वरना वो दिन दूर नहीं की पुरुष वर्ग ने अभी तो बस वस्तुकरण किया है मादा जाति का कहीं ऐसा न हो मादा जाति को कूड़ा_कचरा समझा जाने लगे जिसकी झलक आज कल बढ़ते यौन हिंसाओं, बलात्कार आदि के रूपों में दिखने भी लगी है ।।।।